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आ द॑स्यु॒घ्ना मन॑सा या॒ह्यस्तं॒ भुव॑त्ते॒ कुत्सः॑ स॒ख्ये निका॑मः। स्वे योनौ॒ नि ष॑दतं॒ सरू॑पा॒ वि वां॑ चिकित्सदृत॒चिद्ध॒ नारी॑ ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā dasyughnā manasā yāhy astam bhuvat te kutsaḥ sakhye nikāmaḥ | sve yonau ni ṣadataṁ sarūpā vi vāṁ cikitsad ṛtacid dha nārī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। द॒स्यु॒ऽघ्ना। मन॑सा। या॒हि॒। अस्त॑म्। भुव॑त्। ते॒। कुत्सः॑। स॒ख्ये। निऽका॑मः। स्वे। योनौ॑। नि। स॒द॒त॒म्। सऽरू॑पा। वि। वा॒म्। चिकि॒त्स॒त्। ऋ॒त॒ऽचित्। ह॒। नारी॑ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:16» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजविषयसम्बन्धिप्रजाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य जो ! (मनसा) अन्तःकरण से (दस्युघ्ना) दुष्टस्वभाववालों को मारती (सरूपा) गुणादिकों से तुल्य रूपवती (ऋतचित्) सत्य को इकट्ठा करनेवाली (नारी) मनुष्य की स्त्री (भुवत्) हो उसको आप (आ) सब प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये और जो (ते) आपके (सख्ये) मित्र के लिये (कुत्सः) निन्दित (निकामः) निकृष्ट कामनायुक्त होवे उसको आप (अस्तम्) प्रक्षिप्त अर्थात् दूर करो और आपके (स्वे) अपने (योनौ) गृह में (वि, चिकित्सत्) विशेष चिकित्सा करता है, वह दोनों (ह) निश्चय से (वाम्) आप दोनों के गृह में (नि, सदतम्) रहें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे पुरुष ! आप निन्दित स्त्री का त्याग करके समान रूपवाली और दोषों के नाश करनेवाली को प्राप्त होओ और दोनों मिल कर प्रीति से अपने गृह में रहो ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषयसम्बन्धिप्रजाविषयमाह ॥

अन्वय:

हे नर ! या मनसा दस्युघ्ना सरूपा ऋतचिन्नारी भुवत्तां त्वमायाहि यस्ते सख्ये कुत्सो निकामो भुवत्तमस्तं कुरु यश्च ते स्वे योनौ वि चिकित्सत्तौ ह वां गृहे निषदतम् ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (दस्युघ्ना) या दस्यून् हन्ति सा (मनसा) अन्तःकरणेन (याहि) प्राप्नुहि (अस्तम्) प्रक्षिप्ताम् (भुवत्) भवेत् (ते) तव (कुत्सः) निन्दितः (सख्ये) मित्राय (निकामः) निकृष्टः कामो यस्य सः (स्वे) स्वकीये (योनौ) गृहे (नि) (सदतम्) तिष्ठतम् (सरूपा) समानं रूपं यस्याः सा (वि) (वाम्) युवयोः (चिकित्सत्) चिकित्सते (ऋतचित्) या ऋतं सत्यं चिनोति सा (ह) किल (नारी) नरस्य स्त्री ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे पुरुष ! त्वं निन्दितां स्त्रियं त्यक्त्वा समानरूपां दोषघ्नीं प्राप्नुहि द्वौ मिलित्वा प्रीत्या स्वे गृहे निषीदतम् ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे पुरुषा ! तू निन्दित स्त्रीचा त्याग करून समानरूप असणाऱ्या व दोषांचा नाश करणाऱ्या स्त्रीचा स्वीकार कर व दोघे मिळून प्रीतीने आपल्या घरात राहा. ॥ १० ॥